लॉकडाउन में मैंने बीते हुए ज़माने देखे,
कुछ नए, अद्भुत नज़ारे अनजाने देखे |
हाथ मिलाने के दस्तूर छोड़ कर हाथ जोड़ने के अफ़साने देखे,
आज से पहले कभी न देखे किस्से कई सुहाने देखे |
धूमिल सी बिछी छत से , देखे पुराने शहर के नए रंग,
पाँव रखते ही शायद बोल उठी मुझसे, “क्या लाये हो चरखा और पतंग ?”
कभी लूडो, कभी स्क्रैबल, कभी बच्चों के संग छुपन छुपाई,
कभी नए- नए पकवान बनाने की दबी चाह फिर मन में उठ आई |
पेप्सी कोक छूट गए पीछे, हाथों में हल्दी दूध और काढ़े देखे,
‘मेक्सिकन फ़ूड’ की जगह थालियों में घर के पके ख़ज़ाने देखे |
कभी गोल, कभी आधे चाँद को देखा बादलों में छिपते- छिपाते,
सूर्य- पक्षी को देखा निपुणता से मेरे आँगन में घोंसला बनाते |
कभी देखी नन्हीं चीटियों की निरंतर बढ़ती हुई कतार,
कभी सुनी काली कोयल की मीठी और मधुर पुकार |
गमलों में लगे पौधों के बढ़ने पर खुद को हर्षित हुए देखा,
चिड़िया के बच्चों को घोंसले से निकल पहली उड़ान भरते हुए देखा |
सुबह को दोपहर, दोपहर को साँझ में ढलते हुए देखा,
माँ का काम कभी ख़त्म कैसे नहीं होता, ऐसा ही कुछ होते हुए देखा |
पहले भी थे यही नज़ारे पर देख कर भी कभी नहीं देखे,
अब ज़िन्दगी की दौड़ में थमकर, ज़िन्दगी जीने के कुछ तरीके सीखे |
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